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जून, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

अमावस

आमावस के बाद अब चाँद दिखने लगा था । मैं अपने कर्मों में रोने लगा था । जाना चाहता हूं मैं पास उसके , जो नामुमकिन है ! तब मैं रो पड़ता हूं , मेरी व उसकी कुछ याद हैं चाँद में , तारे मुझे उकसाते हैं , मिलन का तरीक़ा बताते हैं । कि रो मत रोना कायरता है , फिर सोचता हूं कब अमावस आये । कब मुझे तेरी याद र आये , मैं देखे बिना नहीं रह सकता तुझे , कण-कण में महसूस करता तुझे । तू चाँद नहीं दगाबाज़ है , मैं तेरा दाग़ी चेहरा कैसे भूलूं । जो मेरे ही सामने लगा था , करूँ तो क्या करूँ ? तुम बिन ना लागे जिया , मेरा तू ही मर्ज़ है । तुझे मिलने में क्या हर्ज़ है ? जो तेरे लाखों मुझ पर कर्ज़ हैं , इसलिए भूल नहीं सकता मेरा फ़र्ज़ है । मेरा दम घुट न जाये , अमावस चाहता हूं । मैं बेडियों में बँधा हूं , तू खुली पतंग है । ना तू ये आज़ादी छोड़ सकता है , मेरे लिए । और न में इन बेडियों से । रोऊ भी तो कैसे , दाग़ दामन में गिरे । मुझे सबसे उजियारा तू लगता , सूरज भी फीका - फीका लगता । जैसे निश निशा होती प्रबल , मैं रो पड़ता हूं । कुछ सुकून होता है , इस मासूम दिल में । तुझे कोई और पुकारे तो , बड़ा

।। आख़िर जिन्दगी क्या है ।।

सोचने में मजबूर करती जिन्दगी । आख़िर जिन्दगी क्या है ? एक मेला है या एक खेला है , या जिन्दगी गुरु चेला है । आख़िर जिन्दगी क्या है ? एक बबंडर है या एक खंडहर है , या जिन्दगी खंजर है । आख़िर जिन्दगी क्या है ? अमावस की रात है या चाँद की रोशनी , या जिन्दगी एक दीपक की रोशनी । आख़िर जिन्दगी क्या है ? वह खिट-पिट है या अंधेरा है , या जिन्दगी मारा मारी है । आख़िर जिन्दगी क्या है ? सोचने में मजबूर करती जिन्दगी , आख़िर जिन्दगी क्या है ?     चन्द्र प्रकाश बहुगुना

।। कभी दिल से किसी को चाहा नहीं ।।

कभी दिल से किसी को चाहा नहीं , बाद चाहत की इच्छा से क्या फ़ायदा । मैं मधुशाला गया ,       सुरा पान भी किया । सुरा पीते ही ख़्याल आ गया । कभी प्यार का अर्थ तो समझा नहीं , फिर प्यार करने से क्या फ़ायदा । कभी दिल से किसी को चाहा नहीं , बाद चाहत की इच्छा से क्या फ़ायदा । मैंने शादी की ,      रस्में निभाई । रस्में निभाते ही ख़्याल आ गया । कभी रिश्तों को मैंने समझा नहीं , फिर रिश्ते निभाने से क्या फ़ायदा । कभी दिल से किसी को चाहा नहीं , बाद चाहत की इच्छा से क्या फ़ायदा ।          मेरे बच्चे हुए ,          भरण-पोषण किया । पोषण करते ही मन में ख़्याल आ गया । कभी बच्चों को समय दिया ही नहीं , फिर इनके पोषण का क्या फ़ायदा । कभी दिल से किसी को चाहा नहीं , बाद चाहत की इच्छा से क्या फ़ायदा ।              बच्चों की शादी करी ,               खूब पैसा लगाया । पैसे खरचते ही मन में ख़्याल आ गया । कभी बच्चों की इच्छा जानी नहीं । फिर इस शादी का क्या फ़ायदा , कभी दिल से किसी को चाहा नहीं , बाद चाहत की इच्छा से क्या फ़ायदा ।।              

।। हसा करो ।।

दर्द सहा करो , फिर भी हँसा करो । ग़म छुपाया करो , यों मुस्कुराया करो । अपने जीवन का भी , मज़ा उठाया करो । महल तो रोशनी से जगमगाते सभी । कभी झोपड़े में भी दिया जलाया करो । अपनों को तो दुख-सुख देते सभी , गैरों के दुःख-सुख में मिल जाया करो ।

तू कै की भअ

आज पराणी उदेखी गै , तेरी गुलाबी जसी मुखडी मुरझा गै । काँ तू कोयल जसी बासेंछी , आज तेर बचन भली कै बैठी गै । तू बोट डावा बानर जसी उछलेछी , आज कला क़िले पछी गै । आख़िर तू कै की भअ ।। उ हिमाव जस मुखड तेरो , सूखी डान जस देखीछ । आज तेरी य सूनसानी, म कै न जचनी । यो रुडी तोडी लैछी , दो फोचिन काफव तू । आख़िर तू कै की भअ ।

।। मैं मतवाला वह मधुबाला ।।

मैं मतवाला , वह मधुबाला , पीते हैं मधुप्याला । मैं मधुकर सा डोल रहा हूं , हर इक बस्ती हर इक सस्ती मधुशाला । वह मधुराक्षी पीला रही ,    मैं मयकश सा पी रहा हूं मधुप्याला । मैं मदहोशी में घूम रहा हूं , मैं महलों वाला भी आज बना हूं बस्तीवाला । आज नहीं मैं उस ठेके पे जाने वाला , आज नहीं हूं मैं वो धनवाला । इल्लत मेरा मुक़द्दर ही था , जो जी रहा हूं हर इक प्याला ।

दिल का दर्द

इश्क़ में जुदाई  सही नहीं जाती , मगर कभी घर कभी समाज के चलते वो मिलने नहीं आती । जरा देखो तुम उन समुंदरी लहरों को , वो आती तोंअलग , मगर एक साथ बहती ।

Peter England

कद कोई 6 फुट होगा फनकते हुए मैट्रो के दरवाज़े की तरफ़ बढ़ा । अन्दर की धक्का मुक्की के कारण वो अन्दर प्रवेश करने में परेशान हो रहा था । शायद उसके साथ कोई है कपड़ों और बोल चाल से सहकर्मी (Colleague)प्रतीत होती है । दोनों मैट्रो में चढ़ गये शारीरिक वेशभूषा से काफ़ी अमीर प्रतीत हो रहे थे । हो भी क्यों ना हमारी तरह बापू जी की कमाई में ठाठ से रहना सब को पसंद नहीं होता । कुछ देर जगह न मिलने की वजह से वो दोनों बीच में ही बाहों में बाहें डाले कुछ बात चीज़ में निमग्न थे । तब तक यमुना बैंक मैट्रो स्टेशन आया थोड़ा भीड़ कम हुई वो दोनों दरवाज़े में पीठ रख कर चर्चा करने लगे । कई लोग घूर रहे थे कई शायद व्यंग भी कर रहे थे । पर मेरी नज़र सिर्फ़ और सिर्फ़ उस लड़के के हाथ में जो बैग था उसमें थी बड़ी मश्क्कत के बाद पढने में आया लिखा था - पीटर इंग्लैंड (Peter England ) मैं जानना चाहता था कि ये कपड़ा कुछ अनोखा होता है क्या या ऐसे ही पर उन के प्रेम प्रसंग में हड्डी नहीं बनना चाहता था कुछ नहीं पूछा कुछ समय में मेरा स्टेशन आया उतर कर घर आ गया लेकिन हर बार एक प्रश्न मेरे मन मैं आता है कि हम लोग जो फ़ालतू का व्यय करते हैं

रस्मे-वफा के चलते हम एक नहीं हो सकते

इन रस्में-वफा के चलते , हम एक नहीं हो सकते । राह जोहते दिन में , रातों को यादों में जगते । तुम्हारे पापा से जो बात की, उत्तर में वो भी ना बोले । तुम्हारी मम्मी जी तो मुझको निठल्ला , नाकारा क्या - क्या कहते । जग वाले तो हमको यों न मिलने देगे मुझको नीच तुमको उच्च जो कहते । सब की नज़रों में जीरो हूं प्रेयसी , तुम ही जो हीरो कहते । हर पल लबों पर नाम तुम्हारा , ज़्यादातर पक्ति लिखते । मैंने तो निर्णय किया है प्रेयसी , हम प्यार तुम्ही से करते । ये खत लिखा है तुमको रोया हूं लिखते - लिखते । इन रस्में-वफा के चलते , हम एक नहीं हो सकते ।

रेखाचित्र

ज्येष्ठ का अन्तिम पक्ष था कुछ गर्मी के साथ पवन के थपेडे मानव को परेशान करने के लिए काफ़ी थे। मैं भी अपने जिन्दगी की पूँजी (स्कूल से प्राप्त कुछ उपाधि कुछ उपलब्धी ) हाथ में लिये दरदर भटक रहा था । कभी इस कम्पनी कभी उस कम्पनी । काम न मिलने की वजह से कुछ हफ्तों से टूट सा गया था । जब भी घर लौटता कुछ ताने भरी बतों को सुनकर खिनना जाता था । आज कमरे में लौटा तो पाता हूं कुछ पुस्तकें मुझे घूर रहीं हैं ,शिक्षा व अन्य उपलब्धियों के परिचय पत्र से भरा टेबल मुझे दुतकार रहा हैं ,माँ बापूजी के द्वारा कही गई बाते कानों में सुनाई दे रही थी । अचानक नज़र पड़ी हरिवंश राय बच्चन द्वारा रचित मधुशाला में कुछ पक्तियां गुनगुनाई और फिर शायद कुछ टूटी फूटी पंक्तियां रची कुछ रचते रचते बेसुद सो गया ...... जब अचानक किसी ने दरवाज़ा खटखटाया तो मैं अचानक से जागा , और बोला कौन है ? दरवाज़े से आवाज़ आई मैं हूं । आवाज़ कुछ जानी पहचानी प्रतीत हो रही थी । दरवाज़ा खोला तो पाता हूं कोई नहीं है यह तो मात्र मेरी अचेतना के लक्षण थे । फिर उठकर छत में चला गया कुछ समय टहलता रहा अभी सूर्य अस्तांचल में था फिर भी अपना ताप छोड़ रहा था ,।इस

तरक्की हितकर है किन्तु

वैश्वीकरण की होड में ,                    कहीं भारत पीछे न छूट जाय । विश्फोटकों बमों की होड में,            कहीं मानव अस्तित्व न मिट जाय । इतिहास गँवा है इस तोड़ में ,      कहीं फिर हर देश जापान ना बन जाय । ग़रीब जनों का पेट काटकर ,                     ये विश्फोटक न बनाए जाय । अरबों की सम्पत्ति होती नष्ट ,                         ये पर्यावरण बचाया जाय । तरक्की हितकर है पर                   मानव , मानवता बचाई जाय । हर वैज्ञानिक का ,       दिमाग़ विश्व कल्याण में लगाया जाय । सकल विश्व एक कुटुंब है ,             क्यों ना अपना  घर बचाया जाय ।

बाकी है ।

हम जाना चाहते हैं सब छोड़कर फिर इंतज़ार बाकी है , चाहे तुम हमसे नफ़रत ही करो पर हमारे तो दिल में प्यार बाकी है । दिन तो कट ही जाते है कुछ कामों में चनदर , लगता है फिर रातों को दिल का गुबार बाकी है । दौड़ भरे जीवन में कट जाते हैं हफ़्ते महीने दो चार , फिर लगता है वह छुट्टी वाला इतवार (रविवार) बाकी है । जब भी मिलते थे उन के हमारे नयन चार, हर पल हर क्षण लगता था एतबार बाकी है । जब भी प्रेम में हम डूबने लगते हैं , फिर लगता है वो क़रार बाकी है । जब भी देखता हूँ उस बेवफा को , एक पल के लिए लगता है कुछ प्यार बाकी है । छोड़ना चाहता हूं इस जग को तुम को , फिर लगता है इश्तहार बाकी है ।

दिल का दर्द

मैं दर्द लिखता गया ,  जमाना वाह वाही करने लगा । ना वो पगली समझी , हर कोई समझाने लगा । ना मैं उसे छोड़ सकता था, ना दर्द लिखना छोड़ सकता था । उसने भी मुँह मोड़ लिया , फिर भी जमाना मुझे बेवफा समझने लगा । जबकि मैं अभी भी दर्द लिखता हूं , लेकिन वो किसी का घर रोशन कर रही है ।

प्रातः काल

निशा के प्राण पखेरु उड़ गए रात काली में , कुछ वृद्ध हो चली रजनी सुबह की लाली में । अली करते गुंजंन हर प्रसून डाली में , विहग मदमस्त डोल रहे शैशव दिनकर लाली में । माँ नव शिशु को थपकी देती मोह की जाली में , माँ का स्नेह कुछ अधिक होता बाल पतंग लाली में । सब धर्मों को प्रकाश देता दिनकर भोर की लाली में , ज्यूं वृक्ष पोषण देता हर इक डाली में ।

बड़ा मज़ा आता है

          ।। बड़ा मज़ा आता है ।। दूसरे के फेसबुक अकाउंट में उसके  Friend को Friendship अनुरोध भेजने में ,किसी Friend से Book लेकर कई रोज़ घर रख कर पढ़ने में बड़ा मज़ा आता है । छुटकी को चिढ़ाने , बड़ों की बात न मानने में बड़ा मज़ा आता है , किताब पढ़ने के बहाने Friend से चैटिंग करने में , बड़ों के बीच होशियार दिखाने में बड़ा मज़ा आता है । किसी सुन्दर लड़की को चुपके से देखने में  ,किसी लड़के से उस का नम्बर लेनेमें  बड़ा मज़ा आता है । किसी की शादी में जाकर Free की  खूब सारी Ice cream  खाने में ,खाना खा कर बुराई करने में  बड़ा मज़ा आता है । दूसरे के फ़ोन से Msg पढ़ना में  , फ़ालतू के जोक भेजने में बड़ा मज़ा आता है ।

बेटियाँ

                ।।  बेटियाँ    ।। सारे संसार में भगवान की  सबसे अच्छी कृति हैं बेटियाँ , बाप का मान सम्मान और ईश्वर का वरदान हैं बेटियाँ । जीवन का अनुराग हैं बेटियाँ , जीवन की दुपहरी में छाँव हैं बेटियाँ । परिवार रूपी गुलदस्ते का सबसे सुन्दर फूल हैं बेटियाँ , भाग दौड़ भरे जीवन में मधुमास हैं बेटियाँ । सूखे कानन में चन्दन वन सी हैं बेटियाँ , सरगम की सबसे मनोहर तान हैं बेटियाँ । हम सब का अस्तित्व का मूल भी हैं बेटियाँ , और कहीं दुर्गा तो कहीं जग जननी हैं बेटियाँ ।

Father day

आँगन में जो छनकर आती               धूप थी वो सुनहरी , वो दीवारों पर परछाई पानी की                                  थी बनती । याद दिला जाती हैं यादें                      मेरे ही बचपन की ....। मेरे खेलने का जरिया था                         पापा का वो कन्धा , मामा जिसका चाँद था                    यारो में ही था वो अन्धा .....। बचपन के कुछ सुखद क्षण याद आ गये और कुछ पक्तियां पंडित हरि ओम व्यास जी की भी आई  याद, पिता एक अहसास है जिसे हम लफ़्ज़ों में बया शायद ही कर सकते। #Father_day मेरे लिए निश दिन है फिर भी कुछ मन में आया सो लिख दिया । आप सब को #Father_day / योग दिवस की शुभकामनाएँ । माँ बाबा की सेवा करें ,बडो का आदर करें । मस्त रहें योग करके चुस्त रहें ।

भाग -दो

                     कीचड़ में कमल                           भाग -दो अभी तक भोला का सूक्ष्म परिचय ही दिया था । प्रसंग था कि भोला आज जल्दी उठ गया क्योंकि उसे सेठ के घर धान रोपने जाना हैं , क़रीब दस बजे भोला सेठ दीवान सिंह के घर पहुँच गया ,दीवान सिंह बोला क्यों रे भोलूवा खाना तो खा कर आया या नहीं ? भोला ने ना में उत्तर दिया । दीवान सिंह खाना ले कर आया ।  उस पात्र में जिसमें बिनुवा (बैल का नाम ) को भोजन दिया जाता है । भोला  अन्न का निरादर नहीं करना चाहता था इसलिए कुछ कहे बिना खाता गया , पर इस बर्ताव से उस का मन दुःख भी हो गया । भोजन करने के बाद उसे एक हरे पत्ते में टीका ( रौली , चन्दन और अक्षत (साबूत चावल ) ) दिया । भोला ने पहले खुद को टीका लगाया और फिर बैलों को । कुछ क्षण ठहरा सेठ के घर के पास । और फिर बिनुवा और रतिया की पूँछ पकड़ कर रोपाई के लिए खेत की तरफ़ बढ़ा । आज न जाने उसका मन खेत की रोपाई में बिलकुल नहीं था  । उसे रह -रह कर अपने पिता की याद आती ,क्योंकि आज से तीन चार साल पहले वह जब अपने पिता के साथ इसी खेत में आया करता था तो पिता सारा काम करते वो खेत के किनारों में बैठ कर पिता द

भाग -एक

          ।। कीचड़ में कमल । ।                           भाग -एक आज जब दिन चढ़ने लगा कुछ बेचैनी थी , क्योंकि सूर्य की गर्मी कुछ असहनीय सी लग रही थी । भोला कुछ उदास हो जाता जब भी वह  स्कूल की ड्रेस पहने बच्चों  को स्कूल  जाते देखता इसलिए सूरज भी उसे आज बेचैन कर रहा था ज्येष्ट मास की पहली दुपहरी थी । भोला उन बच्चों को देख कर प्रफुल्लित भी होता और उदास भी हो जाता उन बच्चों की खादी की पेंट और कन्धे पर लटकता बैग देख कर उसका मन भी स्कूल जाने का करता लेकिन जा नहीं सकता था क्योंकि - भोला अभी 10 साल का ही था लेकिन वह काम एक 25 वर्ष के युवक की तरह करता ,करता क्यों ना करता सारे परिवार की ज़िम्मेदारी जो उसपर थी । एक छुटकी बहन थी और माँ थी , पिताजी के साये से वंचित था भोला बाप का सुख शायद ही उसने अनुभव किया था आज तीन बरस हो गये पिताजी को गुजरे हुए । जब से पिता की मृत्यु हुई है ,तब से सारे परिवार का भरण पोषण भोला ही करता । अपने मालिक के खेतों में हल चलाने से लेकर पशु पालन और सारी देख रेख वही करता लेकिन वह अक्सर उदास हो जाता वह खुद को उन इंसानों से अलग मानने को तैयार नहीं था लेकिन उस का सेठ और सार

कीचड़ में कमल

समाज विषमताऔं में पल रहा है क्यों और किस लिए कोई नहीं जानता है लेकिन ये विषमताएँ कहीं ना कहीं समाज  को अधोमुख की तरफ़ ले जाएगी ,जिससे ना तो समाज का भला होगा और ,न ही लोगों का । हम केवल भौतिक रूप से समृद्ध हो रहे हैं । जबकि मानसिक रूप से समृद्ध होनी की जरुरत है हमें हम नैतिक बनें लेकिन कट्टर ना बनें ।  इसी पर आधारित मेरा उपन्यास है जिसे मैं सिलसिला बार तरीक़े से आप सब के लिए प्रस्तुत करूँगा उपन्यास शीर्षक हीन होगा आप निर्णय करेंगे शीर्षक क्या होता है ? और मुझे निरन्तर प्रेरित करेंगे आप मुझे आशा है .। मेरी कथा आधुनिक प्रेम आप सब को अच्छी लगी और आप सब ने मुझे प्रतिक्रिया भी दी उसके लिए मैं तहे दिल से आभारी हूँ । उसी तरह का प्रेम इस उपन्यास के लिए भी चाहता हूँ मैं मुझे आशा है कि आप सब मुझे लिखने के लिए उत्साहित करेंगे ।       धन्यवाद ।। माणिक्य बहुगुना / पंकज / चंद्र प्रकाश