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नराधम

चंद कागज के टुकड़ों में नर इतरा रहा है ,
वशाकर श्वनों की मौत मर रहा है ।
न खबर है उसे कोई अपनों की न घर की ,
जब की उस पर मार पड रही है दर - दर की ।
धिक्कार है नराधम तुझको तेरे कर्म को ,
चमड़ी उधेड़ कर ज़लील करता शर्म को ।
कहें किस आधार पर रे तुझे मानव ,
तू तो दिन प्रति दिन होता जा रहा है दानव ।।

19/11/2008
चन्द्र प्रकाश बहुगुना(माणिक्य/पंकज )

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