सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

                          ।। पाठक ।।


पाठक शब्द आंग्ल भाषा के "Reader" शब्द का अनुवाद है ...Reader शब्द को अधिक ना समझाकर शीर्षक पर चर्चा करते हैं और तथ्य प्रस्तुत करते हैं  । पाठक शब्द वैसे संस्कृत भाषा की व्युत्पत्ति मालूम पड़ती है किन्तु व्याकरणीय ज्ञान ना होने से मैं इसे प्रमाणित नहीं कर सकता हूँ ... । वैसे मेरा मानना है कि भाषा को जटिल नहीं अपितु सरल,सरस बनाना चाहिए ...। पाठक शब्द से हम सब भली भाँति चिर परिचित हैं । पाठकों के कई प्रकार होते हैं जिससे हम में से कई लोग परिचित नहीं भी हों शायद किन्तु कईयों ने इस पर सोचा तो होगा किन्तु लिख कुछ नहीं पाये किन्तु मेरी उत्कंठा भी तब बढ़ी जब मैंने एक पाठक को एक फुटपात पर बेच रहे दुकानदार से मनोहर कथा नामक पुस्तक मांगते सुना ।
तब मुझे लगा कि आज के ''हाईटेक'' सोशल मीडिया के टाइम में जब सब कुछ आप को सोशल मीडिया में उपलब्ध मिल जाता है तब भी लोग मनोहर कथा टाइप पुस्तकें पढ़ते हैं ...?
वहीं से शीर्षक का जन्म हुआ ...। लेकिन आप खुद सोचिये कि पाठकों के प्रकार होते हैं या नहीं ... ?? भाई नहीं होते हैं कहने से पहले सुनों ...। पाठकों के अनेक प्रकार नहीं होते तो सब लोग एक ही प्रकार की पुस्तकें पढ़ते ...। लेकिन ऐसा होता नहीं है हर पाठक अपनी रूचि के अनुरूप ही विषयसामग्री पसन्द करता है ...। कई लोग डरावने उपन्यास पढ़ना पसन्द करते हैं कई प्यार भरे ... जिस में मासूका आशिक को धोखा देती है ... उन को देख कर लगता है कि कही ना कही उन के साथ भी वो घटना घाटी है .... । कई ऐसे पाठक भी होते हैं जो ... व्याकरण के चक्कर में डूबे रहते हैं लेकिन उन को अंत काल तक वो समझ नहीं आती क्योंकि हर कोई पाणिनि नहीं बन सकता है ... । और कई तो भाषा विज्ञान के ही पीछे पड जाते हैं ...कि ष का उच्चारण ख की भाँति होना चाहिए ..। किन्तु मुझे समझ नहीं आता है कि हम लोग भाषा को इतना जटिल क्यों करते जा रहे हैं ?
आज एक धारणा यह भी है कि अगर आप ने सरल शब्दों का प्रयोग किया है तो आप अज्ञानी आप को भाषा का ज्ञान नहीं है ... चलो छोड़ो इन बातों को ...।
पाठक अपनी अपनी सोच के हिसाब  से ही पुस्तक चयन करता है कि उसे क्या पढ़ना है  ...। कुछ पाठक परिवेश से भी बनते हैं क्योंकि आप किसी दोस्त से कहिये कि भाई फलानी पुस्तक तो मस्त है उस में ये हुआ वो हुआ .. । जिसके कारण एक नया पाठक बनता है उस पुस्तक के लिए ...। कई पाठक पुस्तक इसलिए पढ़ते हैं क्योंकि उस से उनको लगता है कि भाव जुड़े है ...। कई केवल टाइम पास करने के लिए पुस्तकों को पढ़ते हैं । किन्तु कई पाठकों में पुस्तक पढ़ने का मानो नशा होता है ।
और पुस्तक न मिलने पर वो विकल हो उठता है .. जैसे युवा अवस्था में प्रेमी के न मिलने में से जीवन का अस्तित्व समाप्त सा लगता है उसी तरह पुस्तक प्रेमियों को पुस्तक प्राप्त न होने पर होता है ..।


शेष अगले भाग में .......


चंद्रप्रकाश बहुगुना 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

प्रेम का सात्विक अर्थ

प्यार है क्या ? यह प्रश्न हर किसी के मन में आता होगा । कई लोग इसे वासना के तराजू से तौलने की कोशिश करते हैं और कई केवल स्वार्थपूर्ति लेकिन ये सब हमारी गलती नहीं है आधुनिक समाज के मानव का स्वभाव है । लेकिन प्रेम/प्यार इन चीजों से काफ़ी आगे है ,उदाहरण स्वरूप आप एक कुत्ते के पिल्ले से प्यार करते हैं तो आप उस से कुछ आश रखते हो क्या ?और एक माँ से पूछना कि उस का जो वात्सल्य तुम्हारे प्रति है उस प्रेम के बदले वह कुछ चाहती है क्या ? नहीं ना तो तुम इसे स्वार्थ के तराजू से तौलने की क्यों कोशिश करते हो ? मुझे नहीं समझ आता शायद ये मुझ जैसे व्यक्ति के समझ से परे है । और प्यार हम किसी से भी करें बस उसका नाम बदल जाता है --- एक बच्चे का माँ से जो प्यार होता है वह वात्सल्य कहलाता है । किसी जानवर या अन्य प्राणी से किया प्यार दया भाव या आत्मीयता का भाव जाग्रत करता है । अपनी बहन,भाई और अन्य रिश्तों में जो प्यार होता है वह भी कहीं ना कहीं आत्मीयता के अर्थ को संजोए रखता है । और हमारा प्रकृति के प्रति प्रेम उसे तो हम शायद ही शब्दों के तराजू से तोल पाएं क्योंकि उस में कोई भी स्वार्थ नहीं है बस खोने का म

।। तुम ।।

रंगे ग़ुलाब सी तुम ... सपनों का सरताज़ सी तुम ... मैं यों ही सो जाना चाहता हूँ .. जब से सपनों में आई हो तुम .... ©®चंद्र प्रकाश बहुगुना / पंकज / माणिक्य

"संस्कृत" तुझ से कौन नहीं चिरपरिचित

खग विहग करते गुण गान , शिष्य रखते गुरु का मान .. हमने पूजा तुझको वेद पुराण , स्वार्थ हित के लिए निकला नया नीति विज्ञान ।। उन्मूलन के लिए बन गए भाषा विज्ञान , क्यों मिलते हैं कुछ मृत अवशेष .. तुझ बिन क्या है औरों में विशेष , क्या नहीं था इसके पास ... क्या रही होगी हम को इससे आस , लेकिन तुझ से कौन नहीं चिरपरिचिय ।। हर घर में होता गुण गान .. हर साहित्य में होता मान ... फिर क्यों नहीं करते तेरा सजीव गान , क्यों वेद , पुराण उनिषद, षड्दर्शन में है मान .. लेकिन तुझ से कौन नहीं चिरपरिचित ।।