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एक मुलाकात की आरजू थी

एक मुलाकात की आरजू थी ,
अब हर मुलाकात पहली सी लगती हैं
एक दूसरे को देखते रहने पर भी देखते रहने का मन हर बार होता है ,
हर छुवन सिमेट रखी हैं मन मंदिर में ,
मैंने दबा रखे हैं अंतस में कुछ पल स्कूटी के पीछे बैठने के ,
मेरा तुम को अंक में भर लेना का मन ,
तुम को तन से बाहर व तन से अन्दर महसूस करने का आनन्द ,
तुम्हारा सब कुछ सौप देने का प्रेम ,
समर्पण , त्याग , दया ,
मैं नहीं जानता इसका मैं हकदार हूँ या नहीं , लेकिन मैं कभी कभी खुद को अयोग्य मानता हूं ... ।
तुम प्रेम की पराकाष्ठा में मेरी देवी हो .. जिसे पत्थरों में या फूलों से नहीं ..
प्रेम से पूजा जा सकता है ...।
लेकिन मेरे जीवन के कई पहलुओं से तुम अनजान हो ... एक दम अनजान , एक शिशु की तरह ,
मैं एक असफ़ल व्यक्ति हूँ ,
जिसने बचपन से अब तक केवल सिख है ,
जिसने केवल जीवन में गलतियां की हैं जिसका भुकतान भी किया है ..।
मैं अक्षम भी हूँ हर क्षेत्र में , तुम सक्षम ,
कैसे हूँ तुम्हारे लायक मैं ?
नहीं जानता ..
लेकिन फिर भी तुम को हृदय से चिपकाये रखना चाहता हूं ..।
माणिक्य

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