हम ही पर जान छिड़कते हो
हम ही से नैन चुराते हो ..
खुद ही तो बोलने को कहती हो ..
खुद ही चुप करती हो ...।
खुद ही तो हम से रूठती हो ...
खुद ही तो मान जाती हो ...
हम ही से प्यार करती हो ..
हम ही से दूरी चाहते हो ।
तुम ही तो ज़िद में रहती हो ..
तुम ही तो ज़िद भूल जाती हो ..
तुम ही तो शिकवे रखती हो ...
तुम ही तो मुझे भूल जाती हो ।
खुद ही तो गले लगाती हो ..
खुद ही आँहे भारती हो ..
मुझी से प्यार चाहती हो ...
मुझी से नफ़रत करती हो ।
चंद्र प्रकाश बहुगुना /माणिक्य /पंकज
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