कद कोई 6 फुट होगा फनकते हुए मैट्रो के दरवाज़े की तरफ़ बढ़ा ।
अन्दर की धक्का मुक्की के कारण वो अन्दर प्रवेश करने में परेशान हो रहा था ।
शायद उसके साथ कोई है कपड़ों और बोल चाल से सहकर्मी (Colleague)प्रतीत होती है ।
दोनों मैट्रो में चढ़ गये शारीरिक वेशभूषा से काफ़ी अमीर प्रतीत हो रहे थे ।
हो भी क्यों ना हमारी तरह बापू जी की कमाई में ठाठ से रहना सब को पसंद नहीं होता ।
कुछ देर जगह न मिलने की वजह से वो दोनों बीच में ही बाहों में बाहें डाले कुछ बात चीज़ में निमग्न थे । तब तक यमुना बैंक मैट्रो स्टेशन आया थोड़ा भीड़ कम हुई वो दोनों दरवाज़े में पीठ रख कर चर्चा करने लगे । कई लोग घूर रहे थे कई शायद व्यंग भी कर रहे थे ।
पर मेरी नज़र सिर्फ़ और सिर्फ़ उस लड़के के हाथ में जो बैग था उसमें थी बड़ी मश्क्कत के बाद पढने में आया लिखा था -
पीटर इंग्लैंड (Peter England ) मैं जानना चाहता था कि ये कपड़ा कुछ अनोखा होता है क्या या ऐसे ही पर उन के प्रेम प्रसंग में हड्डी नहीं बनना चाहता था कुछ नहीं पूछा कुछ समय में मेरा स्टेशन आया उतर कर घर आ गया लेकिन हर बार एक प्रश्न मेरे मन मैं आता है कि हम लोग जो फ़ालतू का व्यय करते हैं उसे क्यों ना ग़रीबों बेसहारों की मदद की जाय ।
Peter england का कपड़ा ना पहन कर साधारण भी हम पहन सकते हैं ।कई लोग अभी भी नंगे घूमने हैं ।
प्यार है क्या ? यह प्रश्न हर किसी के मन में आता होगा । कई लोग इसे वासना के तराजू से तौलने की कोशिश करते हैं और कई केवल स्वार्थपूर्ति लेकिन ये सब हमारी गलती नहीं है आधुनिक समाज के मानव का स्वभाव है । लेकिन प्रेम/प्यार इन चीजों से काफ़ी आगे है ,उदाहरण स्वरूप आप एक कुत्ते के पिल्ले से प्यार करते हैं तो आप उस से कुछ आश रखते हो क्या ?और एक माँ से पूछना कि उस का जो वात्सल्य तुम्हारे प्रति है उस प्रेम के बदले वह कुछ चाहती है क्या ? नहीं ना तो तुम इसे स्वार्थ के तराजू से तौलने की क्यों कोशिश करते हो ? मुझे नहीं समझ आता शायद ये मुझ जैसे व्यक्ति के समझ से परे है । और प्यार हम किसी से भी करें बस उसका नाम बदल जाता है --- एक बच्चे का माँ से जो प्यार होता है वह वात्सल्य कहलाता है । किसी जानवर या अन्य प्राणी से किया प्यार दया भाव या आत्मीयता का भाव जाग्रत करता है । अपनी बहन,भाई और अन्य रिश्तों में जो प्यार होता है वह भी कहीं ना कहीं आत्मीयता के अर्थ को संजोए रखता है । और हमारा प्रकृति के प्रति प्रेम उसे तो हम शायद ही शब्दों के तराजू से तोल पाएं क्योंकि उस में कोई भी स्वार्थ नहीं है बस खोने का म
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