आमावस के बाद अब चाँद दिखने लगा था ।
मैं अपने कर्मों में रोने लगा था ।
जाना चाहता हूं मैं पास उसके ,
जो नामुमकिन है !
तब मैं रो पड़ता हूं ,
मेरी व उसकी कुछ याद हैं चाँद में ,
तारे मुझे उकसाते हैं ,
मिलन का तरीक़ा बताते हैं ।
कि रो मत रोना कायरता है ,
फिर सोचता हूं कब अमावस आये ।
कब मुझे तेरी याद र आये ,
मैं देखे बिना नहीं रह सकता तुझे ,
कण-कण में महसूस करता तुझे ।
तू चाँद नहीं दगाबाज़ है ,
मैं तेरा दाग़ी चेहरा कैसे भूलूं ।
जो मेरे ही सामने लगा था ,
करूँ तो क्या करूँ ?
तुम बिन ना लागे जिया ,
मेरा तू ही मर्ज़ है ।
तुझे मिलने में क्या हर्ज़ है ?
जो तेरे लाखों मुझ पर कर्ज़ हैं ,
इसलिए भूल नहीं सकता मेरा फ़र्ज़ है ।
मेरा दम घुट न जाये ,
अमावस चाहता हूं ।
मैं बेडियों में बँधा हूं ,
तू खुली पतंग है ।
ना तू ये आज़ादी छोड़ सकता है ,
मेरे लिए ।
और न में इन बेडियों से ।
रोऊ भी तो कैसे ,
दाग़ दामन में गिरे ।
मुझे सबसे उजियारा तू लगता ,
सूरज भी फीका - फीका लगता ।
जैसे निश निशा होती प्रबल ,
मैं रो पड़ता हूं ।
कुछ सुकून होता है ,
इस मासूम दिल में ।
तुझे कोई और पुकारे तो ,
बड़ा अच्छा लगता है ।
लेकिन तुम बिन ,
मछली बिन पानी हो गया हूं ।
लेकिन मैंने किया है प्रेम ,
तुम्हें नहीं फसने दूंगा इस जंजाल में ।
चाह बस एक ही है ,
तुम ख़ुश रहो ।।
चन्द्र प्रकाश बहुगुना
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें