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बचपन

आँगन में वो छन के आती ...
      धूप थी वो सुनहरी ।
वो दीवारों पर परछाई ..
     पानी की थी बनती ।

याद दिला जाती है वो तो ...
      मेरे ही बचपन की ...
मेरे ही बचपन की .।।

मेरे खेलने का जरिया था ..
      पापा का वो कन्धा ...
पापा का वो कन्धा ।
मामा जिसका चाँद ...
था यारो ...
मैं ही था वो अंधा ।।

याद दिला जाती है वो तो ...
      मेरे ही बचपन की ...
मेरे ही बचपन की .।।

माँ की हर बात थी ..
               न्यारी ।
माँ की हर डॉठ थी .
              प्यारी  ।।
भी वो हर सर्द बचाती ...
कभी सिर सहलाती ....
  कभी वो सिर सहलाती ..।।

याद दिला जाती है वो तो ...
      मेरे ही बचपन की ...
मेरे ही बचपन की .।।

तारे गिनते रात ..
    रात भर ।
दिन चिड़ियाँ से खेला ...
   दिन चिड़ियाँ से खेला ।।

याद दिला जाती है वो तो ...
      मेरे ही बचपन की ...
मेरे ही बचपन की .।।

माणिक्य बहुगुना / चंद्र प्रकाश बहुगुना / पंकज बहुगुना

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रस्मे-वफा के चलते हम एक नहीं हो सकते

इन रस्में-वफा के चलते , हम एक नहीं हो सकते । राह जोहते दिन में , रातों को यादों में जगते । तुम्हारे पापा से जो बात की, उत्तर में वो भी ना बोले । तुम्हारी मम्मी जी तो मुझको निठल्ला , नाकारा क्या - क्या कहते । जग वाले तो हमको यों न मिलने देगे मुझको नीच तुमको उच्च जो कहते । सब की नज़रों में जीरो हूं प्रेयसी , तुम ही जो हीरो कहते । हर पल लबों पर नाम तुम्हारा , ज़्यादातर पक्ति लिखते । मैंने तो निर्णय किया है प्रेयसी , हम प्यार तुम्ही से करते । ये खत लिखा है तुमको रोया हूं लिखते - लिखते । इन रस्में-वफा के चलते , हम एक नहीं हो सकते ।

टापर हूँ मैं ।

मैं टापर हूँ बिहार का ..। देश का भविष्य हूँ । चाणक्य हूँ मैं । मैं ही बूद्ध हूँ । नये ज्ञान का सृजन हूँ मैं ..। मैं ही ज्ञान -विज्ञान हूँ । टापर हूँ मैं । माणिक्य बहुगुना