लड़की एक सुंदर लड़की
एक लकड़ी ठेले पर सब्जी बेचती है ..
वो मुस्कान मुझे मजबूर करती है ..
उसी से सब्जी खरीदने के लिए ,
वो सब्जी संग हँसी बेचती है ..
मुफ़्त में , रूह की खुसी
भरी दुपहरी में , जाड़ों की ठन्डे में वो
यूँ ही अकेले पतवार चलती है ।
एक भाई एक बहन को पालती है .
पढना चाहती है ,
माँ , बाप के साये से वंचित है ..
फिर भी माँ बन कर पिता बन कर पाल रही है .
कितने संघर्ष नहीं करती ?
बस आँसू आँचल में दबा देती और अधरों में मुस्कान ,
कौन कहता है बेटियाँ बोझ होती हैं ?
बस ऐसी है वो लड़की ,
मैं हर रोज गुजरता हूँ उस रस्ते ..
बस उसे देख कर दिल खुस हो जाता है ..
मैं एक दिन भी उसे नहीं देखता तो परेसान हो जाता हूँ .
माँ की तरह .
उस से बात करने का दिल करता है ..
उस के कष्ट देख कर कई बार विचलित हो उठता हूँ ..
कभी मानवता के नाते कुछ करने का मन करता है ..
अगले पल समाज से डरता हूँ ..
ये ब्राह्मण . क्षत्रिय , वैश्य हैं
बस सहम जाता हूँ ..
उस लड़की पर दया अती है ,
प्यार आता है , दुलार आता है ...
एक भाई की तरह , पिता की तरह ,
माँ की तरह , विशुद्ध प्रेम .
बस कई सालों से बेच रही है सब्जी
हर रोज पाता हूँ ।
ये प्रेम ही तो है ..?
लेकिन मैं सब से प्रेम करता हूँ ..
बस यही गुनाह करता हूँ ..
मुझे मंजूर है ऐसे गुनाह .
मैं हर जन्म में करता रहूँगा ऐसा गुनाह ।
माणिक्य / चंद्र प्रकाश बहुगुना / पंकज
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