गिलहरी मेरे बग़ीचे की .
स्वतन्त्र , उन्मुक्त .
लोक लाज से ,
वस्त्रों से ,
लिंग भेद से,
भ्रूण हत्या से,
जातियों से ,
आरक्षण से ,
कुरीतियों से ,
शादी , दहेज़ से ,
स्कूली शिक्षा से ,
पदवी से ,
वादों से ,
कृत्रिम शारीरिक सुंदरता से ,
कृत्रिम प्रेम से ,बातों से ,
देह के अकारण भूख से ,
बस प्रेम करते हैं ..
किसी से भी कभी भी कहीं भी ,
उनके समाज में दंगे नहीं होते हैं ,
खून नहीं बहाया जाता है किसी का भी ,
बस प्रेम करते हैं ...
माणिक्य बहुगुना / पंकज / चन्द्र प्रकाश
प्यार है क्या ? यह प्रश्न हर किसी के मन में आता होगा । कई लोग इसे वासना के तराजू से तौलने की कोशिश करते हैं और कई केवल स्वार्थपूर्ति लेकिन ये सब हमारी गलती नहीं है आधुनिक समाज के मानव का स्वभाव है । लेकिन प्रेम/प्यार इन चीजों से काफ़ी आगे है ,उदाहरण स्वरूप आप एक कुत्ते के पिल्ले से प्यार करते हैं तो आप उस से कुछ आश रखते हो क्या ?और एक माँ से पूछना कि उस का जो वात्सल्य तुम्हारे प्रति है उस प्रेम के बदले वह कुछ चाहती है क्या ? नहीं ना तो तुम इसे स्वार्थ के तराजू से तौलने की क्यों कोशिश करते हो ? मुझे नहीं समझ आता शायद ये मुझ जैसे व्यक्ति के समझ से परे है । और प्यार हम किसी से भी करें बस उसका नाम बदल जाता है --- एक बच्चे का माँ से जो प्यार होता है वह वात्सल्य कहलाता है । किसी जानवर या अन्य प्राणी से किया प्यार दया भाव या आत्मीयता का भाव जाग्रत करता है । अपनी बहन,भाई और अन्य रिश्तों में जो प्यार होता है वह भी कहीं ना कहीं आत्मीयता के अर्थ को संजोए रखता है । और हमारा प्रकृति के प्रति प्रेम उसे तो हम शायद ही शब्दों के तराजू से तोल पाएं क्योंकि उस में कोई भी स्वार्थ नहीं है बस खोने का म
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