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मेरी गिलहरी

गिलहरी मेरे बग़ीचे की .
स्वतन्त्र , उन्मुक्त .
लोक लाज से ,
वस्त्रों से ,
लिंग भेद से,
भ्रूण हत्या से,
जातियों से ,
आरक्षण से ,
कुरीतियों से ,
शादी , दहेज़ से ,
स्कूली शिक्षा से ,
पदवी से ,
वादों से ,
कृत्रिम शारीरिक सुंदरता से ,
कृत्रिम प्रेम से ,बातों से ,
देह के अकारण भूख से ,
बस प्रेम करते हैं ..
किसी से भी कभी भी कहीं भी ,
उनके समाज में दंगे नहीं होते हैं ,
खून नहीं बहाया जाता है किसी का भी ,
बस प्रेम करते हैं ...
माणिक्य बहुगुना / पंकज / चन्द्र प्रकाश

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रस्मे-वफा के चलते हम एक नहीं हो सकते

इन रस्में-वफा के चलते , हम एक नहीं हो सकते । राह जोहते दिन में , रातों को यादों में जगते । तुम्हारे पापा से जो बात की, उत्तर में वो भी ना बोले । तुम्हारी मम्मी जी तो मुझको निठल्ला , नाकारा क्या - क्या कहते । जग वाले तो हमको यों न मिलने देगे मुझको नीच तुमको उच्च जो कहते । सब की नज़रों में जीरो हूं प्रेयसी , तुम ही जो हीरो कहते । हर पल लबों पर नाम तुम्हारा , ज़्यादातर पक्ति लिखते । मैंने तो निर्णय किया है प्रेयसी , हम प्यार तुम्ही से करते । ये खत लिखा है तुमको रोया हूं लिखते - लिखते । इन रस्में-वफा के चलते , हम एक नहीं हो सकते ।

टापर हूँ मैं ।

मैं टापर हूँ बिहार का ..। देश का भविष्य हूँ । चाणक्य हूँ मैं । मैं ही बूद्ध हूँ । नये ज्ञान का सृजन हूँ मैं ..। मैं ही ज्ञान -विज्ञान हूँ । टापर हूँ मैं । माणिक्य बहुगुना