सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

अब बचपन वाला इतवार नहीं आता

अब बचपन वाला इतवार नहीं आता ,
ना गलियों में वो रसभरी कुल्फ़ी वाला ,
पाव अठन्नी टॉफी  वाला ,
ना चाची मम्मी की चूड़ियों वाला ,
ना बहना की खुशियों की मेहंदी वाला ।
अब वो बचपन वाला इतवार नहीं आता ।।

ना मिट्टी के घरौंदे बनते ,
हफ़्ते भर का नहीं नाहना ,
लाईबॉय की खुसबू सूंघना ,
च्यवनप्राश यों चट कर जाना ,
जैम की डिबिया खा जाना,
बॉर्नविटा मुठ्ठी भर - भर खाना ।
अब वो बचपन वाला इतवार नहीं आता ।।

नई किताबों के चित्र देखना ,
स्कूल न जाने के बहाने खोजना ,
बस अपनी धुन में रम जाना ,
लाल , पीली , हरी ,काली
टॉफियों को संसार समझना ,
माँ की नजरों से बचकर खेलने जाना ।
अब वो बचपन वाला इतवार नहीं आता ।।

बहना, भय्या का वो प्यार नहीं मिलता ,
माँ और पापा का दुलार नहीं मिलता ,
ना दादा , दादी ,मामा, मामी का प्यार ,
अब वो बचपन वाला इतवार नहीं आता ।।

अड्डू , अंठी ,गुल्ली - डंडा ना जाने क्या ..?
पकड़म - पकड़ी , चोर - सिपाही ना जाने क्या ..?
दादी की कथा - कहानी , किस्से ना जाने क्या ?
वो दादा की तकली ,सूत कातना ना जाने क्या ?
माँ का गायों से दूध दोहन और ना जाने क्या ?
अब वो बचपन वाला इतवार नहीं आता ।।

अन्तर्देशी लाल लिफ़ाफ़े , आसमानी हरी चिठ्ठियाँ ,
ताई - ताऊ , फूफा , मौसा ,मामा का सन्देस ,
पढ़ते थे , लिखते थे , सुनते थे सुनते थे
डाकिया , मासप को कह सुनते थे हरी चिठ्ठियाँ ,
अब वो बचपन वाला इतवार नहीं आता ।।

चंद्र प्रकाश बहुगुना / माणिक्य /पंकज
संपर्क सूत्र - +९१७५०३७७२८७१

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

प्रेम का सात्विक अर्थ

प्यार है क्या ? यह प्रश्न हर किसी के मन में आता होगा । कई लोग इसे वासना के तराजू से तौलने की कोशिश करते हैं और कई केवल स्वार्थपूर्ति लेकिन ये सब हमारी गलती नहीं है आधुनिक समाज के मानव का स्वभाव है । लेकिन प्रेम/प्यार इन चीजों से काफ़ी आगे है ,उदाहरण स्वरूप आप एक कुत्ते के पिल्ले से प्यार करते हैं तो आप उस से कुछ आश रखते हो क्या ?और एक माँ से पूछना कि उस का जो वात्सल्य तुम्हारे प्रति है उस प्रेम के बदले वह कुछ चाहती है क्या ? नहीं ना तो तुम इसे स्वार्थ के तराजू से तौलने की क्यों कोशिश करते हो ? मुझे नहीं समझ आता शायद ये मुझ जैसे व्यक्ति के समझ से परे है । और प्यार हम किसी से भी करें बस उसका नाम बदल जाता है --- एक बच्चे का माँ से जो प्यार होता है वह वात्सल्य कहलाता है । किसी जानवर या अन्य प्राणी से किया प्यार दया भाव या आत्मीयता का भाव जाग्रत करता है । अपनी बहन,भाई और अन्य रिश्तों में जो प्यार होता है वह भी कहीं ना कहीं आत्मीयता के अर्थ को संजोए रखता है । और हमारा प्रकृति के प्रति प्रेम उसे तो हम शायद ही शब्दों के तराजू से तोल पाएं क्योंकि उस में कोई भी स्वार्थ नहीं है बस खोने का म

।। तुम ।।

रंगे ग़ुलाब सी तुम ... सपनों का सरताज़ सी तुम ... मैं यों ही सो जाना चाहता हूँ .. जब से सपनों में आई हो तुम .... ©®चंद्र प्रकाश बहुगुना / पंकज / माणिक्य

"संस्कृत" तुझ से कौन नहीं चिरपरिचित

खग विहग करते गुण गान , शिष्य रखते गुरु का मान .. हमने पूजा तुझको वेद पुराण , स्वार्थ हित के लिए निकला नया नीति विज्ञान ।। उन्मूलन के लिए बन गए भाषा विज्ञान , क्यों मिलते हैं कुछ मृत अवशेष .. तुझ बिन क्या है औरों में विशेष , क्या नहीं था इसके पास ... क्या रही होगी हम को इससे आस , लेकिन तुझ से कौन नहीं चिरपरिचिय ।। हर घर में होता गुण गान .. हर साहित्य में होता मान ... फिर क्यों नहीं करते तेरा सजीव गान , क्यों वेद , पुराण उनिषद, षड्दर्शन में है मान .. लेकिन तुझ से कौन नहीं चिरपरिचित ।।