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एक ख़त बस तेरे नाम

आज खुद से ही छुपकर जिंदगी जी रहा हूँ ..
तेरे दर्द दिए गम सुबह शाम पी रहा हूँ ।।
मकसद नहीं है जिंदगी का ...
आज श्वानों सा जीवन जी रहा हूँ ।
रातों को सूनसान कमरे में याद आ ही जाती है...
तेरे यादों के सहारे जी रहा हूँ ।
तुम गुनगुनी लोरी सुना जाती हो शायद ..
इस लिए रातों को कुछ कुछ सो पता हूँ ।
जब तुम आई थी क्या था मेरे पास ...
आज तुम चली गई हो आज भी कुछ बचा नहीं ।
चिथड़े - चिथड़े हो गए हैं आज जिंदगी के
फिर भी तेरी यादों के सहारे जी रहा हूँ ।
आज जग दुत्काद रहा है नाकारा समझ रहा है ..
मैं तुम्हारी यादों को भुलाने के लिए सुबह साँम पी रहा हूँ ।
आज खुद से ही छिप
कर जिंदगी जी रहा हूँ ।।

चंद्रप्रकाश बहुगुणा / माणिक्य / पंकज

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