सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

याद रहता है

हर रात पिछली रात की याद लिए रहती है ..
हर सुख पिछले दुःख को संजोए रखता है ।
हर खुसी में पिछला रुदन छुपा रहता है ...
हर प्रेम में वो पहला प्रेम याद रहता है ।
चाहे कुछ भी हो कुछ यादें हम भूल कर भी नहीं भूलते ...
दिन में रात में
चाँद की बारात में
चिड़ियों के चहकने में
बादल के गरजने में
भोजन में , बर्तन की खान खान में
बच्चों की आवाज में ..
सुई में धागे में ..
खुद की निजी जिन्दगी में
रोने में हँसने में ..
गाने में , सरगम में
गुस्से में , खुसी में ..
मेरे लिखने में ..
डोर वैल की आवाज में ..
घंटी में , गाड़ी के हॉर्न में
मेरे अकेलेपन में
बस तुम याद आ जाती हो
आज हृदय इतना श्रान्त है ...
मन विचलित है ।
उन यादों में ...
जो पिछली रात जी ली थी ।
आज आँखें तो मेरी हैं ..
और हर नींद तुम्हारी रहती है ।
ये शारीर मेरा है ..
दिल भटकता रहता है ।
मेरा ये जीवन तो तुम को ना पा
सका ...
मैं अगला जन्म अवश्य लूंगा ।।

चंद्र प्रकाश बहुगुना / पंकज / माणिक्य

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

प्रेम का सात्विक अर्थ

प्यार है क्या ? यह प्रश्न हर किसी के मन में आता होगा । कई लोग इसे वासना के तराजू से तौलने की कोशिश करते हैं और कई केवल स्वार्थपूर्ति लेकिन ये सब हमारी गलती नहीं है आधुनिक समाज के मानव का स्वभाव है । लेकिन प्रेम/प्यार इन चीजों से काफ़ी आगे है ,उदाहरण स्वरूप आप एक कुत्ते के पिल्ले से प्यार करते हैं तो आप उस से कुछ आश रखते हो क्या ?और एक माँ से पूछना कि उस का जो वात्सल्य तुम्हारे प्रति है उस प्रेम के बदले वह कुछ चाहती है क्या ? नहीं ना तो तुम इसे स्वार्थ के तराजू से तौलने की क्यों कोशिश करते हो ? मुझे नहीं समझ आता शायद ये मुझ जैसे व्यक्ति के समझ से परे है । और प्यार हम किसी से भी करें बस उसका नाम बदल जाता है --- एक बच्चे का माँ से जो प्यार होता है वह वात्सल्य कहलाता है । किसी जानवर या अन्य प्राणी से किया प्यार दया भाव या आत्मीयता का भाव जाग्रत करता है । अपनी बहन,भाई और अन्य रिश्तों में जो प्यार होता है वह भी कहीं ना कहीं आत्मीयता के अर्थ को संजोए रखता है । और हमारा प्रकृति के प्रति प्रेम उसे तो हम शायद ही शब्दों के तराजू से तोल पाएं क्योंकि उस में कोई भी स्वार्थ नहीं है बस खोने का म

।। तुम ।।

रंगे ग़ुलाब सी तुम ... सपनों का सरताज़ सी तुम ... मैं यों ही सो जाना चाहता हूँ .. जब से सपनों में आई हो तुम .... ©®चंद्र प्रकाश बहुगुना / पंकज / माणिक्य

।। उत्तराधिकारी ।।

।। उत्तराधिकारी ।। मेरे मरने के बाद मेरी पुस्तकें किस की होंगी ये सोच कर मैं कई मार यमराज को धोखा दे चुका हूँ । लेकिन इस बार यम के दूत चेतावनी देके गये हैं ....इस बार मरना ही होगा मुझे लेकिन अपना उत्तराधिकारी किसी बनाऊँ अपनी पुस्तकों का ये जान कर चिन्तित हो उठता हूँ । उत्तराधिकारी के लिए मैंने विज्ञापन भी निकाला लेकिन कई आये लेकिन भाग गये । बेटा बोलता है कि इस भौतिक युग मैं जहाँ सब काम कम्पयूटर से हो जाता है पुस्तकों का क्या करें । लेकिन मेरी रुह बसी है पुस्तकों में । बस अब इन पुस्तकों का उत्तराधिकारी चाहिए । क्या तुम बनोगे मेरे पुस्तकों के उत्तराधिकारी ? क्योंकि मृत्यु हर पल निकट है । माणिक्य बहुगुना