अलि गुन-गुना रहा है ,
कुछ गा रहा है ,
कुछ गाकर तुझे बुला रहा है .......
ऋतुराज आ ....
कुसुम खिल रहे हैं पराग बिखेर कर बुला रहे हैं ....
ऋतुराज आ ...
प्राणियों के तन पर नया जोश आकर तुझे बुला रहे हैं ....
ऋतुराज आ ....
मदन भी नगरों की की चोट खाकर तुझे बुला रहा है ....
ऋतुराज आ ....
चैत्र में यह शोभा धरा की अजूब लगती ,
पुष्पों के सजने से धरणी दुल्हन सी लगती ।
शिशिर के समीर के थपेड़े अब रुकने भी लगे हैं ,
प्राणी भी तन की मर सह कर जीने को जग रहे हैं ।
मदमस्त ये हुए हैं कुंजर हरी हो रही है धरा सब बंजर ,
नया जोश आता है तन के अंदर ।
डालियाँ मदमस्त झोकों से हिल कर झुक रही हैं ,
इत्र की सी लुभावनी महक लेकर हवा चल रही है ।
कोपलों पर भी रंग छा गया है ,
ये सब देख मदन मुस्कुरा गया है ।
रतिपति भी मस्त होकर तुझे बुला रहा है ...
ऋतुराज आ , ऋतुराज आ ....
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