पुस्तक और बस्ते तले दब जाता बचपन ,
कॉलेज के लैक्चर तक ढाल जाता बचपन।
जब बचपन की निंद्रा से जागते हैं ,
उस मासूम प्रभात में सपने पूरे न होने का डर सताता है ।
होते तो हैं हजार सपने इन आँखों में ,
कहीं अध्यापक तो कहीं निज जन सपने जला देते हैं आँखों में ।
जले सपने साथ लेकर जब कॉलेज से निकलते हैं ,
जले सपने साथ लेकर जब दर-दर भटकते हैं ।
तब कुछ खुद को कोसते हैं ..
कुछ भविष्य निर्मार्णकों को ।
तब पाता हूँ वे अब भी भविष्य बेच रहे हैं ,
कुछ नए अंदाज़ में कुछ पैसे वालों को ।।
कवि =
चंद्र प्रकाश बहुगुणा/माणिक्य/पंकज
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