( 1 )
अंज अंग आँखें अंजन,
मदन की अंगचरी तुम ।
अंकुरित यौवन ये तन मन है ,
प्रेम में अंटाचित्त जग तुम ।।
( 2 )
चिर प्रतिबिम्ब बना था ...
इस वीरान ह्रदय में ,
तुम में ही जग दिखता .....
हो तुम ह्रदय पीड़ा में ।।
( 3 )
मयकश में यूँ झूम रहा .....
प्रेम मधु के प्याले से ,
जग वाले कहते पागल ..
एक प्रेम मधु प्याले से ।।
( 4 )
जो चपला कड़की नभ में ..
नील मेघ काले बन आए ,
मेरी ह्रदय में जो पीड़ा थी ...
बादल आँखों के आँसू बन आये ।।
( 5 )
मयखाना भी मयकश था ...
देख मादक मनमोही को ,
ये ह्रदय हिल जाता है ....
सहकर बिछुड़न की पीड़ा को ।।
( 6 )
थक चुका ये तन ......
बेकार इस साँसों को ढ़ोने में ,
तुम बिन ये जीवन नहीं कटता ...
रातों को रोते कोनों में ।।
( 7 )
जब धनीभूत ह्रदय था तब तुम थी ...
अब पानी बन आँखों से आया है ,
और वह तपन अब भी ...
हर महामिलान में बाधा बन आया है ।
( 8 )
अंगूरी ऑंखें ये तन मधुप्याली...
जग मदहोश होता मधु से ,
तुम अक्षय पात्र मधु की ....
में मदहोश होता तेरे ही मयखाने ।।
( 9 )
एक जाम होटों से पिला दे ....
ओ नाज़ नखरे वाली ,
कभी सब में दिखती कभी शराब में ...
ओ मयखाने की मखानेवाली ।।
( 10 )
और डूबना चाहता हूँ ....
इस रंगीन मधुप्याले में ,
नहीं पिया पाकर ये देह ....
तो ताला लगे इस योनी के द्वारों में ।
(11)
चैत्र का मधुमास आया ....
संग होली , बसन्त संग लाया ,
प्रेमी निमग्न हैं प्रेम में ...
बिरही मन यादें लाया ।।
(12)
मैं नहीं जानता स्वर्ग नर्क ....
नहीं जानता धर्म कर्म ,
मैं मानता क्षणभंगुर ही सही स्वर्ग तुम में ...
अगर तुम में नहीं डूबा तो व्यर्थ हैं सब कर्म ।।
कविता का शिल्पी =
चंद्र प्रकाश बहुगुणा / माणिक्य / पंकज
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