आँगन में वो छन कर आती ..
धूप थी वो सुनहरी ,
वो दीवारों पर परछाई ...
पानी की थी बनती ।
याद दिला जाती हैं वो तो ...
मेरे ही बचपन की -2 ।।
माँ की हर बात थी प्यारी ...
माँ की हर बात थी न्यारी -2
कभी वो हर सर्द बचाती ...
कभी सिर सहलाती -2 ।।
याद दिला जाती हैं वो तो ...
मेरे ही बचपन की -2 ।।
मेरे खेलने का जरिया था ...
पापा का वो कन्धा -2
मामा जिसका चाँद था यारो ...
मैं ही था वो अन्धा -2 ।।
याद दिला जाती हैं वो तो ...
मेरे ही बचपन की -2 ।।
तारे गिनते रात-रात में ....
दिन मिट्टी से खेला ,
माँ को ही अपना सब मानते ...
और हर दिन होता था यों मेला ।।
याद दिला जाती हैं वो तो ...
मेरे ही बचपन की -2 ।।
कवि---
चंद्रप्रकाश बहुगुणा / माणिक्य /पंकज
इन रस्में-वफा के चलते , हम एक नहीं हो सकते । राह जोहते दिन में , रातों को यादों में जगते । तुम्हारे पापा से जो बात की, उत्तर में वो भी ना बोले । तुम्हारी मम्मी जी तो मुझको निठल्ला , नाकारा क्या - क्या कहते । जग वाले तो हमको यों न मिलने देगे मुझको नीच तुमको उच्च जो कहते । सब की नज़रों में जीरो हूं प्रेयसी , तुम ही जो हीरो कहते । हर पल लबों पर नाम तुम्हारा , ज़्यादातर पक्ति लिखते । मैंने तो निर्णय किया है प्रेयसी , हम प्यार तुम्ही से करते । ये खत लिखा है तुमको रोया हूं लिखते - लिखते । इन रस्में-वफा के चलते , हम एक नहीं हो सकते ।
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