।। माँ ना भेज मुझे परदेस ।।
माँ ना भेज मुझे परदेस ।
ना रह पाऊँगा में बाबू जी की फटकार बिन ,
वो दादी के दुलार बिन ।
वो घन्टों किस के गोद में सर रखूंगा मैं ,
वो छोटी-छोटी बातों में किससे रुठुंगा मैं ।
माँ ना भेज मुझे परदेस ,
मैं न रह पाऊँगा ।
माँ तू कहती है तुझे पढ़ लिख बड़ा होना है ,
मैं कहता हूं नहीं होना मुझे बड़ा ।
नहीं लेनी मैंने स्वार्थ परक शिक्षा ,
नहीं जाना परदेस माँ ।
वो बाबूजी के कुर्तों को कौन समहालेगा माँ ,
वो दादी को खट्टी -मीठी टाफी कौन खिलाएगा माँ ।
मेरी बकरी को कौन चुगाएगा माँ ,
और ये खेत खलिहान,बाग , बग़ीचे कौन देखेगा माँ ।
माँ ना भेज मुझे परदेस ।।
#चन्द्र_प्रकाश_बहुगुना
प्यार है क्या ? यह प्रश्न हर किसी के मन में आता होगा । कई लोग इसे वासना के तराजू से तौलने की कोशिश करते हैं और कई केवल स्वार्थपूर्ति लेकिन ये सब हमारी गलती नहीं है आधुनिक समाज के मानव का स्वभाव है । लेकिन प्रेम/प्यार इन चीजों से काफ़ी आगे है ,उदाहरण स्वरूप आप एक कुत्ते के पिल्ले से प्यार करते हैं तो आप उस से कुछ आश रखते हो क्या ?और एक माँ से पूछना कि उस का जो वात्सल्य तुम्हारे प्रति है उस प्रेम के बदले वह कुछ चाहती है क्या ? नहीं ना तो तुम इसे स्वार्थ के तराजू से तौलने की क्यों कोशिश करते हो ? मुझे नहीं समझ आता शायद ये मुझ जैसे व्यक्ति के समझ से परे है । और प्यार हम किसी से भी करें बस उसका नाम बदल जाता है --- एक बच्चे का माँ से जो प्यार होता है वह वात्सल्य कहलाता है । किसी जानवर या अन्य प्राणी से किया प्यार दया भाव या आत्मीयता का भाव जाग्रत करता है । अपनी बहन,भाई और अन्य रिश्तों में जो प्यार होता है वह भी कहीं ना कहीं आत्मीयता के अर्थ को संजोए रखता है । और हमारा प्रकृति के प्रति प्रेम उसे तो हम शायद ही शब्दों के तराजू से तोल पाएं क्योंकि उस में कोई भी स्वार्थ नहीं है बस खोने का म
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें