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तुम मेरे मन मन्दिर में छाए

आज फिर हृदय में अनगिनत रवि उग आये ,
कलुषित हृदय से कल्मष दूर भया क्षण में ..
फिर हृदय से अन्य छन्द बन आये ,
जब से तुम मेरे मन मन्दिर में आये ।।

जग में रहना सीखा तुम से ...
आज फिर जीवन जीना जान पाये ,
आज हृदय में अक्षय चाँदनी आई ..
जब से तुम मेरे मन मन्दिर में आये ।।

फिर हृदय में अनगिनत सुमन खिल पाये ..
अवसादों की नौका में तैरा करता था ,
तुम सुखों के सेज बना लाये .......,
जब से तुम मेरे मन मन्दिर में आये ।।

मैं ये जीवन लौटाने वाला था उस रब को ...
तुम से मिलकर जीना जान पाया हूँ ..
आज जिन्दा भी हूँ बस तेरे कारण ...
जब से तुम मेरे मन मन्दिर में आये ।।

चंद्रप्रकाश बहुगुणा /माणिक्य /पंकज

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