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माँ का ख़त

हर माह के अंत में ...
एक साधारण लिफाफे में माँ का ख़त आ ही जाता है ,
कि इस मास तो आ जा घर ।
कुछ आंसुओं से लतपत
कुछ भावनाओं से ..
प्रलोभन देती हर ख़त में ...
वो मुझे अभी भी बच्चा ही समझती है.....
और कहती है
सुन बेटे ..
अब तो घर आ जा ...
तेरे बापू आँखों की रौशनी बिन भी चला लेते ....
तेरी पढ़ाई में जो उधार लिया था अगर चुका देते..

तेरी राह जोहते सूख गई आँखे ...
तू एक बार उन लोगों का कर्जा चुका देता तो वो नजरें उठा देते ...
पढ़ाई और ना जाने क्या-क्या ...
अब नहीं दीखता है एक पैसा ।
पैसे न चुका पाते न सही ...
एक बार घर आता तो पिता नजर उठा लेते ।
......
हर  बटोही को ...
अपना बेटा समझ लेते हैं आज कल
मैं अपनी आँखें देकर कहती हूँ ...
वो हमारा बेटा नहीं है कोई राहगीर है...
वो रो पड़ते हैं ..
और अपने ही भाग्य को कोसते हैं .
और कई बार रास्ते की तरफ ताकते हैं,
और कहते है काश कि एक बेटी होती ...
इस बुढ़ापे में साथ देती ...
पर क्या पता था ...
तुम हम से मुँह मोड़ लोगे ...
तब उनको लोभ था परलोक का
आज उन्हें बस सहारे की ज़रूरत है ...
अपने पोते की शक्ल नहीं देखी ...
बहु को ना देखा ...
तेरे बापू तेरी वो स्कूल की चीजों को ही देखते रहते ..
महसूस करते ...
बस कभी कभी फबक फबक कर रो पड़ते ...
हर सुबह तेरी तरक्की की दुआ करते ..
मैं तो माँ हूँ ...
तेरे बापू को भी संभालती हूँ बच्चे की तरह ...
और खुद चूल्हे - चौकी के समय रो लेती हूँ ...
कई बार पीछे से आकर पूछते हैं ....
क्यों रो रही हो ...
में आँसू दबा लेती हूँ आँचल में ... तेरे बापू के दांत भी नहीं हैं ...
बस यूँ ही कई रोज भूखे सो जाते हैं ..
रासन बाला रासन नहीं देता है बिन पैसे के ...
लोग आ जाते हैं मदद करने ...
जिन की कभी मदद की थी बापू ने ..
बस और सब सकुशल है ।
         तेरी लंबी उम्र हो ऐसी प्रर्थना है ईश्वर से ....
बहू को आशीस देना ...
बच्चों को प्यार ...
      बस खुस रहना ....
यही हमारी आस ।।

       तुम्हारी बचपन की माँ

कवि-- गुरुओं का एवं विद्वानों का अनुचर
चंद्र प्रकाश बहुगुणा/माणिक्य/पंकज

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