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प्रेम का सात्विक अर्थ

प्यार है क्या ? यह प्रश्न हर किसी के मन में आता होगा ।
कई लोग इसे वासना के तराजू से तौलने की कोशिश करते हैं और कई केवल स्वार्थपूर्ति लेकिन ये सब हमारी गलती नहीं है आधुनिक समाज के मानव का स्वभाव है ।
लेकिन प्रेम/प्यार इन चीजों से काफ़ी आगे है ,उदाहरण स्वरूप आप एक कुत्ते के पिल्ले से प्यार करते हैं तो आप उस से कुछ आश रखते हो क्या ?और एक माँ से पूछना कि उस का जो वात्सल्य तुम्हारे प्रति है उस प्रेम के बदले वह कुछ चाहती है क्या ? नहीं ना तो तुम इसे स्वार्थ के तराजू से तौलने की क्यों कोशिश करते हो ? मुझे नहीं समझ आता शायद ये मुझ जैसे व्यक्ति के समझ से परे है ।
और प्यार हम किसी से भी करें बस उसका नाम बदल जाता है ---
एक बच्चे का माँ से जो प्यार होता है वह वात्सल्य कहलाता है ।
किसी जानवर या अन्य प्राणी से किया प्यार दया भाव या आत्मीयता का भाव जाग्रत करता है ।
अपनी बहन,भाई और अन्य रिश्तों में जो प्यार होता है वह भी कहीं ना कहीं आत्मीयता के अर्थ को संजोए रखता है ।
और हमारा प्रकृति के प्रति प्रेम उसे तो हम शायद ही शब्दों के तराजू से तोल पाएं क्योंकि उस में कोई भी स्वार्थ नहीं है बस खोने का मन करता है प्रकृति में ।
और रही बात एक स्त्री और पुरुष के मध्य प्रेम की तो वहां भी जरुरी नहीं है कि आप केवल शाररिक तृप्त के लिए ही उस से प्रेम करते हैं लेकिन जो इस धारणा से प्रेम करते हैं वो शायद ही प्रेम करते हैं।
मैं ये भी नहीं कह रहा हूँ की शाररिक पूर्ति करना गलत है नहीं वो सही है परन्तु केवल शाररिक तृप्ति करना या शरीर के ना मिलने पर जीवन का अंत समझना केवल वासना ही है ।
लेकिन जो भी हो परन्तु प्रेम एक साधना है जिस में साधक कुछ चाहे बिना केवल साधना में तल्लीन रहता है । लेकिन आज कल के जो मजनूँ या लैला टाइप लोग होते हैं वो इस बात को शायद बकवास समझें ।
परन्तु एक सच्चा प्रेमी से पूछो कि प्रेम क्या है ? शायद वो भी मेरे तर्क से सहमती व्यक्त करते हों ।। कई बार आप खुद सुनते रहते होंगे कि उस लड़की ने मना किया प्रेम से उसलड़के ने उस को ही मार डाला ....।
क्या हमें प्रेम जानवर बनाता है ? मैं जहाँ तक जान पाया हूँ कि प्रेम तो हम में सात्विक भाव जागृत करता है हमें इंशान बनता है ।
और कई बार आप ने देखा होगा कि समाज के चलते हम एक दूसरे से नहीं मिल पाते हैं तो प्रेमी जोड़े आत्म हत्या का रास्ता अपनाते हैं ...

क्या प्रेम ये है ?
नहीं ।
प्रेम हम को जीना सिखाता है ना की आत्महत्या करने के लिए प्रेरित करते हैं ।
बस में ये समझाना चाहता हूँ कि प्रेम को बदनाम मत करो अपनी सोच बदलो बस ।।

चंद्रप्रकाश बहुगुणा /माणिक्य /पंकज

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रंगे ग़ुलाब सी तुम ... सपनों का सरताज़ सी तुम ... मैं यों ही सो जाना चाहता हूँ .. जब से सपनों में आई हो तुम .... ©®चंद्र प्रकाश बहुगुना / पंकज / माणिक्य

"संस्कृत" तुझ से कौन नहीं चिरपरिचित

खग विहग करते गुण गान , शिष्य रखते गुरु का मान .. हमने पूजा तुझको वेद पुराण , स्वार्थ हित के लिए निकला नया नीति विज्ञान ।। उन्मूलन के लिए बन गए भाषा विज्ञान , क्यों मिलते हैं कुछ मृत अवशेष .. तुझ बिन क्या है औरों में विशेष , क्या नहीं था इसके पास ... क्या रही होगी हम को इससे आस , लेकिन तुझ से कौन नहीं चिरपरिचिय ।। हर घर में होता गुण गान .. हर साहित्य में होता मान ... फिर क्यों नहीं करते तेरा सजीव गान , क्यों वेद , पुराण उनिषद, षड्दर्शन में है मान .. लेकिन तुझ से कौन नहीं चिरपरिचित ।।