।। दगडू ।।
दगडू नाम सुन कर भल लगता है । क्योंकि हमारा बचपन इन ही दगड़ियों के साथ बीता है , उ बात अलग ठहरी की घर वाल यो दगड़ियों को अच्छा नहीं मानते थे , और इज , बज्यू तो बिलकुल बकर चिताने वाले ठहरे जसिक उदाहरण के लिए -
" किले न खा जाने रे घवाग् "
बानर खितड़न छाड़ि यो गिड़ू खेलनाछे ।।
इसी तरह जल्दी घर ना पहुचने पर भी खूब सुनाने वाले ठहरे -
" तल बखोई रामुआक नानतिन देख चार बाजन में पन्दर् मिनट में घर पहुच जानी एक तू छे उ लछी दगड़ी डोई रोन्छे उ त पढन में ले सही छ तेर खोर त फुटी रे "।
ना जाने क्या क्या सम्बोधन सुनने को मिलते थे । पर उनका ये अपार प्यार देख कर अभी भी हँस पड़ता हूँ ।
दगड़ियों ने भल काम किया तो दिक्कत न किया तो दिक्कत , किसी दगडी के ज्यादा नंबर आ गए तो समझो रात को खतोडुआ हो गया तुमर।
फिर बज्यू(पिता जी)के जम कर लेक्चर सुनो -
" हमार टैम में बिजुली ले न हैछी फिर ले हम पास है जांछिया एक तू छे ज के सब सुबिधा दी राखि तबलै तू के कम नम्बर ल्युछे " और हम लोग ह्यून में बिना चप्पले जांछिया रात भर बत्ती में पढ़छियाँ
हाई इस्कूलाक में कतुक दूर सेंटर तक पैदल जा छिया ।।
ना जाने और कौन से कौन से लेक्चर देते थे कई बार गलती बड़ी होने पर कान मरोड़ना आम बात थी और मुर्गा तो हफ्ते में एक बार बन ही जाता पर हम भी हम ठहरे कहाँ बदलते ।
आज जब देखता हूँ की वो सही थे लेकिन अगर वो हमारी समस्या के अनुकूल समझाते तो उचित होता लेकिन जो भी हो .......
बचपन के हर पल याद हैं जहां-जहां दगड़ियों की भूमिका है चाहे वो पाढ़शाला हो या क्रिकेट खेलने में हो या अंठी हो या डानिफोड़ हो सब जगह याद आती है ।
ततुके न स्कूल में अपनी गैंग भी होने वाली ठहरी और चेलीन्हों पत्त न किले नहीं बोलते थे । लेकिन कई लड़के देखने भी नहीं देते थे -
" उ तेर बोज छ उ क़ै न देख "
" या यो लैटर तू उ के दिबेर आ "
"म के चाण खवा में पटे द्यूँ "
" मेर स्कूलक काम कर दे "
और न जाने क्या क्या लेकिन न त उ गर्ल फ्रैंड बनी और न उसने बादे पूरे किये मुझे अब भी समझ नहीं आता कि हम लड़कियों से क्यों नहीं बोलते थे किरमऊ की तरह चटका देती थी बल।
फिर भी दगड़ियों के साथ जो मजा था शायद कहीं हो--
आज कल बरसात देखता हूँ तो बचपन में जो ककड़ी चोरी थी उस की याद भी आ ही जाती है । ककड़ी चोरने में भी अपना मजा ठहरा बिशेषकर दगड़ियों के साथ आज भी बहुत सारे दगड़ि हैं लेकिन वो बचपन वाली बात नहीं है । मजा तो दगड़ियों के साथ होलियों में भी आता था ।
बड़े लोग स्वर , और पैरों को देखकर बार-बार समझते थे लेकिन हम भी कहाँ कम थे ,नई जनरेसन का खून जो ठहरे ।
हर जगह बिगाड़ देने वाले ठहरे चाहे वो पैरों की ताल हो या होली के स्वर फिर बड़े फटकार लगाते हुए कहते - " छो रोव न करो रे छवारो"
कुछ होलियां पसन्द भी थी जिन में श्रंगार रास था -
जैसे -
बलमा तेरो अंगिया चटकिलो ...
चट. पटकिलो , सटकिलो ...
डडिय पैर के चटकिलो ....
और जैसे-
फाल्गुन के दिन चार मेरो पिया निर मोहिया कब आवे ......।।
इत्यादि बहुत कुछ होता था इन दगड़ियों के साथ चाहे वो किसी का काम करना हो या फिर बकलोलपंती
सब जगह इनकी भूमिका अहम् होती है ।
किसी के अखरोट के पेड़ से अखरोट चुराने की योजना को विफल करने का श्रेय गांव के चाचा या फिर इस तरह के खाली बैठे लोगों का काम होता है । जो हम दगड़ियों के धुर विरोधी होते थे , और हर गांव के काम में हम को पेलना अर्थात काम जबरदस्ती कराने का इनका ठेका होता था ।
लेकिन हम भी पानी लेते समय कनस्तर तोड़ देना या फिर इसी तरह उन को भी परेशान करते थे ।
लेकिन बड़े बूढे अच्छा मानते थे ....
लेकिन ये पल शायद ही लौटें लेकिन इन यादो में भी बड़ा मजा आता है ।
लेखक -
चंद्र प्रकाश बहुगुणा/पंकज /माणिक्य
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